◆ क्या है षोडश मातृका रहस्य?
किन्ही भी शुभअवसरों,पर्व-त्यौहारों,यज्ञ-यज्ञादि एवं विशेषकर विवाहादि संस्कार में मण्डल स्थापन आवश्यक है इनमें षोडश मातृकाओं, सप्तमातृकाओं एवं नवग्रह की स्थापना कर किए जा रहे कार्य की सफलता के लिए विशेष प्रार्थना की जाती हैं,विवाह जैसे पवित्र कर्म में इनके स्थापन और पूजन विधि विधान से करने पर निर्विघ्न रूप से आयोजन पूर्ण हो जाता हैं। किसी भी कार्य के निर्विध्न संपादन व संचालन के लिए भगवान गजानन के साथ ही षोडश मातृकाओं का स्मरण और पूजन अवश्य करना चाहिए इससे न केवल कार्य की सिद्धि होती है बल्कि उसका संपूर्ण फल भी प्राप्त होता है साथ ही कर्ताका अभ्युदय होता है षोडशमातृकाओं की स्थापना के लिए फर्श पर वृत्ताकार मंडल बनाया जाता है। इस आकृति में सोलह कोष्ठक (खाने) बनाए जाते हैं अनुष्ठान में अग्निकोण की वेदिका या पाटे पर सोलह कोष्ठक के चक्र की रचना कर उत्तर मुख या पूर्व मुख के क्रम से सुपारी व अक्षत पर क्रमश: इन १६ मातृकाओं की पूजन का विधान है। ।
किसी भी देवी या देवता की पूजा में आह्वान का सबसे अधिक महत्व होता है क्योंकि उस देवी या देवता के आह्वान के बिना पूजा कार्य प्रारंभ नहीं होता है,पहले कोष्ठक में गौरी का आह्वान किया जाता है।
लेकिन गौरी के आह्वान से भी पहले भगवान श्री गणेश के आह्वान की परंपरा है। श्री गणेश का आह्वान पुष्प और अक्षत से किया जाता है।अन्य कोष्ठकों में मंत्र उच्चारित करते हुए देवियों का आह्वान किया जाता हैं।
षोडशमातृकाओं का वर्णन :-
०१- गौरी –
यश, मंगल, सुख-सुविधा आदि व्यवहारिक पदार्थ तथा मोक्ष-प्रदान करना इनका स्वभाविक गुण है।
गौरी शरणगतवत्सला एवं तेज की अधिष्ठात्री देवी है,सूर्य में जो तेज है वह माता गौरी की कृपा से ही है भगवान शंकर को सदा शक्ति संपन्न बनाए रखने में इनका महत्वपूर्ण योगदान है,माता गौरी दु:ख, शोक, भय, उद्वेग को सदा के लिए नष्ट कर देती है। इसलिए देवी भागवत में कहा गया है कि बिना गौरी-गणेश की पूजा के कोई कार्य सफल नहीं हो सकता।
माता गौरी की मूर्ति कान्यकुब्ज के सिद्ध पीठ पर विराजित हैं।
०२- पद्मा –
पद्मा माता लक्ष्मी का ही रूप है जब-जब भगवान कल्कि का अवतार ग्रहण करते हैं तब-तब माता लक्ष्मी का नाम पद्मा ही होता है,पद्मा का अविर्भाव समुद्र मंथन के पश्चात हुआ है।वह समस्त ऐश्वर्य, वैभव, धन-धान्य और समृद्धि को प्रदान करती हैं।इसलिए यह विष्णुप्रिया हमेशा कमल पर विराजमान रहती हैं।
देवी पद्मा भगवान श्री विष्णु के वक्षस्थल पर निवास करती हैं।
०३- शची –
ऋग्वेद के अनुसार विश्व में जितनी भी सौभाग्यशाली नारियां हैं उनमें शची सबसे अधिक सौभ्याग्यशालिनी हैं। इनके रूप से सम्मोहित होकर ही देवराज इन्द्र ने इनका वरण किया। शची पवित्रता में श्रेष्ठ और स्त्री जाति के लिए आदर्श हैं,रूप, यौवन का अभय वरदान प्राप्ति के लिए शची की आराधना श्रेयकर माना जाती है।
०४- मेधा –
मत्स्य पुराण के अनुसार यह आदि शक्ति प्राणिमात्र में शक्ति रूप में विद्यमान है,हममें जो बुद्धि शक्ति है वह आदिशक्ति स्वरूप ही है, माता मेधा बुद्धि में स्वच्छता लाती हैं इसलिए बुद्धि को प्रखर और तेजस्वी बनाने एवं उसकी प्राप्ति के लिए मेधा का आह्वाहन करना चाहिए।
०५- सावित्री –
सविता सूर्य के अधिष्ठातृ देवता होने से ही इन्हें सावित्री कहा जाता है,इनका आविर्भाव भगवान श्रीकृष्ण की जिह्वा के अग्रभाग से हुआ है।सावित्री वेदों की अधिष्ठात्री देवी है,संपूर्ण वैदिक वांग्मय इन्हीं का स्वरूप है ऋग्वेद में कहा गया है कि माता सावित्री के स्मरण मात्र से प्राणी के समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं और उसमें अभूतपूर्व नई ऊर्जा का संचार होने लगता है।
०६- विजया –
विजया भगवान विष्णु, रूद्र और सूर्य के श्रीविग्रहों में हमेशा निवास करती हैं,इसलिए जो भी प्राणी माता विजया का निरंतर स्मरण व आराधना करता है वह सदा विजयी होता है।
०७- जया –
प्राणी को चहुँ और से रक्षा प्रदान करने वाली माता जया का प्रादुर्भाव आदि शक्ति के रूप में हुआ है। दुर्गा सप्तशती के कवच में आदि शक्ति से प्रार्थना की गई है कि-
‘हे मां आप जया के रूप में आगे से और विजया के रूप में पीछे से मेरी रक्षा करें’।
०८- देवसेना(षष्ठी) –
‘ब्रह्मवैवर्तपुराण’ में छठ को स्वायम्भुव मनु के पुत्र प्रियव्रत के इतिहास से जोड़ते हुए बताया गया है कि षष्ठी देवी की कृपा से प्रियव्रत का मृत शिशु जीवित हो गया। तभी से प्रकृति का छठा अंश मानी जाने वाली षष्ठी देवी बालकों के रक्षिका और संतान देने वाली देवी के रूप में पूजी जाने लगी लोक कल्याण के लिये माता भगवती ने अपना आविर्भाव ब्रह्मा के मन से किया है। अत: ये ब्रह्मा की मानस कन्या कही जाती है ये जगत पर शासन करती है। ब्रह्मा की आज्ञा से इनका विवाह कुमार स्कन्द से हुआ,माता षष्ठी जिसे देवसेना भी कहा जाता है मूल प्रकृति के छठे अंश से प्रकट हुई है। इसलिए इनका नाम षष्ठी देवी है। माता पुत्रहीन को पुत्र, प्रियाहीन को प्रिया- पत्नी और निर्धन को धन प्रदान करती हैं। विश्व के तमाम शिशुओं पर इनकी कृपा बरसती है प्रसव गृह में छठे दिन, 21वें दिन और अन्नप्राशन के अवसर पर षष्ठी देवी की पूजा की जाती है।
०९- स्वधा –
पुराणों के अनुसार जबतक माता स्वधा का आविर्भाव नहीं हुआ था तब तक पितरों को भूख और प्यास से पीडि़त रहना पड़ता था,ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार स्वधा देवी का नाम लेने मात्र से ही समस्त तीर्थ स्नान का फल प्राप्त हो जाता है और संपूर्ण पापों से मुक्ति मिल जाती है।यदि स्वधा,स्वधा,स्वधा तीन बार उच्चारण किया जाए तो श्राद्ध,बलिवैश्वदेव और तर्पण का फल प्राप्त हो जाता है माता याचक को मनोवंछित वर प्रदान करती हैं।
१०- स्वाहा: –
मनुष्य द्वारा यज्ञ या हवन के दौरान जो आहुति दी जाती है उसे संबंधित देवता तक पहुंचाने में स्वाहा देवी ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। इन्हीं के माध्यम से देवताओं का अंश उनके पास पहुंचता है,इनका विवाह अग्नि से हुआ है अर्थात मनुष्य और देवताओं को जोडऩे की कड़ी का काम माता अपने पति अग्नि देव के साथ मिलकर करती हैं।
इनकी पूजा से मनुष्य की समस्त अभिलाषाएं पूर्ण होती है।
११- मातर:(मातृगण:) –
शुम्भ- निशुम्भ के अत्याचारों से जब समस्त जगत त्राहिमाम कर रहा था तब देवताओं की स्तुति से प्रसन्न होकर माता जगदंबा हिमालय पर प्रकट हुई। इनके रूप- लावन्य को देखकर राक्षसी सेना मोहित हो गई और एक-एक कर घूम्रलोचन, चंड-मुंड, रक्त- वीज समेत निशुम्भ और शुम्भ माता जगदंबा के विभिन्न रूपों का ग्रास बन गये और समस्त लोको में फिर दैवीय शक्ति की स्थापना हुई,अत: माता अपने अनुयायियों की रक्षा हेतु जब भी आवश्यकता होती है तब- तब प्रकट होकर तमाम राक्षसी प्रकृति से उनकी रक्षा करती हैं।
१२- लोक मातर:(लोक माताएं) –
राक्षसराज अंधकासुर के वध के उपरांत उसके रक्त से उन्पन्न होने वालेे अनगिनत अंधक का भक्षण करने के लिए भगवान विष्णु ने अपने अंगों से बत्तीस मातृकाओं की उत्पति की यह सभी महान भाग्यशालिनी बलवती तथा त्रैलोक्य के सर्जन और संहार में समर्थ हैं, समस्त लोगों में विष्णु और शिव भक्तों की ये लोकमाताएं रक्षा कर उसका मनोरथ पूर्ण करती हैं।
१२- धृति –
पुराणानुसार माता सती ने अपने पिता दक्ष प्रजापति के प्रजापति पद से पदच्युत होने के पश्चात् उनके हित के लिए साठ कन्याओं के रूप में खुद को प्रकट किया,जिसकी पूजा कर राजा दक्ष पुन: प्रजापति हो गए,मत्स्य पुराण के अनुसार पिण्डारक धाम में आज भी देवी धृति रूप में विराजमान हैं,माता धृति की कृपा से ही मनुष्य धैर्य को प्राप्त करता हुआ धर्म मार्ग में प्रवेश करता है।
१४- पुष्टि –
माता पुष्टि की कृपा से ही संसार के समस्त प्राणियों का भरण-पोषण होता है,इनके बिना सभी प्राणी क्षीण हो जाते हैं।
१५- तुष्टि –
माता तुष्टि के कारण ही प्राणियों में संतोष की भावना बनी रहती है,माता समस्त प्राणियों का प्रयोजन सिद्ध करती रहती हैं तथा सभी की आत्मा को संतोष प्रदान करती हैं ।
१६- आत्म कुलदेवता(देवी)
मातृकाओं के पूजन क्रम में प्रथम तो भगवान गणेश तथा अंत में सोहलवें क्रम में कुलदेवी का पूजन होता है वे देवी होती है जिनकी आराधना हमारे गोत्र के मुख्य ऋषियो ने की है इनकी पूजन से वंश, कुल, कुलाचार तथा मर्यादा की रक्षा होती है। इससे वंश नष्ट नहीं होता है और सुख, शांति तथा ऐश्वर्य की प्रप्ति होती है।
गौरी पद्मा शची मेधा सावित्री विजया जया ।
देवसेना स्वधा स्वाहा मातरो लोकमातरः ॥
धृतिः पुष्टिस्तथा तुष्टिरात्मनः कुलदेवता ।
गणेशेनाधिका ह्येता वृद्धो पूज्याश्च षोडशः ॥
पण्डित योगेश “शास्त्री”