आष्टा। णमोकार महामंत्र एक ऐसा महामंत्र है जो प्रत्येक जीव के अंतिम समय तक काम आता है। किसी भी सेवन करने वाली वस्तु का त्याग करके इस णमोकार महामंत्र का जाप करने से काफी पुण्य मिलता है ।इस महामंत्र की माला जपने से व्यक्ति को दुर्गति से निकालकर सुगति में ले जाते हैं। अंजन चोर से निरंजन भी इसी महामंत्र के कारण बने। गुरु मंत्र और गुरु आज्ञा जीवन में कल्याण कर देती है ।
उक्त बातें श्री पार्श्वनाथ अतिशय दिव्योदय तीर्थ क्षेत्र किला मंदिर पर अपने आशीष वचन के दौरान संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर महाराज की परम प्रभाविका शिष्या अपूर्वमति माताजी ने कहीं।आपने कहा कि प्रत्येक श्रावक-श्राविका को इस महामंत्र पर अटूट आस्था और विश्वास रखना चाहिए ।मुख शुद्धिकरण करके इस महा मंत्र का उच्चारण करे, तो कोई भी जादू-टोना आदि आप पर असर नहीं करेगा। सच्चे मन से गुरु भक्ति का प्रभाव ही आज मुझे इस स्थान पर लेकर आया है ।हमेशा अच्छे स्थान पर बैठकर प्रभु एवं गुरु की आराधना व णमोकार महामंत्र, गुरु मंत्र पढ़ना चाहिए।
28 साल हो गए दीक्षा को
इस पावन अवसर पर अपूर्वमति माताजी ने कहा कि 4 जुलाई 1992 को मेरी दीक्षा हुई और 7 जुलाई से गिलास में पानी पीना भी बंद कर दिया था। मुझे पता ही नहीं था कि मुझे आर्यिका दीक्षा लेना पड़ेगी ।लेकिन गुरु मंत्र की कृपा है कि आज में इस स्थान पर बैठी हूं ।प्रभु की बातें गुरु ही बताते हैं। गुरु हमारी अज्ञानता को दूर करते हैं ।गुरु के दर्शन मात्र से ही कल्याण हो जाता है। साधु- संत समता की मूरत होते हैं ।वह अपने पर आए उपसर्ग की चिंता नहीं करते हैं और न ही कभी प्रतिकार करते हैं ।आचार्यश्री विद्यासागर महाराज कलकत्ता गए, कलकत्ता की जनता ने उनके दर्शन किए लेकिन उन्होंने कलकत्ता को नहीं देखा। अपनी नजरें मार्ग पर रखकर वह अपने निर्धारित स्थल पर पहुंचे। समता के भाव किताबों से जीवन में लाने का प्रयास करें । अपूर्वमति माताजी ने कहा थोड़ी सी बात पर आप लोगों को आक्रोश आ जाता है, जबकि यह आक्रोश अर्थात गुस्सा आपके जीवन के लिए नुकसान दाई है। प्रेम में सभी अपने दिखते हैं और जब द्वेष भाव आ गया तो अपने ही दुश्मन दिखते हैं। वैराग्य भाव मन में आने पर न कोई अपना और न ही कोई पराया नजर आता है। क्रोध में धर्म भी अच्छा नहीं लगता है, शरीर को क्रोध से दूर कर जीवन को धर्म के पथ से जोड़े द्रुतगति से कसाय आती है तो निरग्रंथ मुनि की वाणी और प्रभु की वाणी समझ में नहीं आती है ।माता केकई ने राजा दशरथ से तीव्र कसाय अपने मन में आने पर अपने बेटे भरत को राज्य अभिषेक करवाया और मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम को वनवास भिजवाया ।लेकिन माता केकई के प्रति कोई गलत भाव श्रीराम के मन में नहीं आए ।श्रीराम ने अपनी माता की आज्ञा का पालन करते हुए तत्काल वनवास को गए। उनके साथ लक्ष्मण और सीता भी वनवास के लिए गए ।सब कर्म का खेल है। मुनिराज स्वयं के लिए कुछ भी नहीं मांगते हैं। कर्मों का सिद्धांत है ,याचना स्वयं के लिए न करें। मुनि आयाचक प्रवर्ती के होते हैं ।मुनि गण के लिए मांगना निषेध है।